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संत रैदास के विचारों पर हुआ अंतर्राष्ट्रीय वेबीनार

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 संत रैदास के विचारों पर हुआ अंतर्राष्ट्रीय वेबीनार 

उग्र प्रभा समाचार छिंदवाड़ा 

 छिन्दवाड़ा में दिनांक 03.03.2024 को समय शाम 5.00 से 8.30 तक अंतरष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन किया गया है जिसमें समाज के विभिन्न विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किये. जिसमें मदुरै विश्विद्यालय से डॉ. माईराम ने कहा कि लोकायत मत की अपनी पूरी संस्कृति है इसी में हमें अपनी मुक्ति का मार्ग खोजना चाहिए. उन्होंने कहा की  रैदास के विचारों के बारे में बहुत से ब्राम्हण मत के विचारकों ने भ्रांतियां फैलाई हैं. रैदास का ईश्वर अवतारी नहीं हैं वह ईश्वर के स्थान को ही खारिज करते हैं उनका ईश्वर मनुष्य देह में बसा हुआ है और  रैदास चारों वेदों का खंडन करते हैं. जैसे की “चारों वेद करें खंडोती, रैदास के आगे करें डंडोती” द्वितीय वक्ता के रूप में पर लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स से डॉ. श्रीकांत बोरकर ने डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर का उल्लेख करते हुए बताया की बाबा साहेब ने भारतीय इतिहास की व्याख्या में भारत की भूमि को बुद्ध, नाथ, सिद्ध और संतों की भूमि बताया है यही मानव मुक्ति का रास्ता है. उन्होंने भारत भूमि के इतिहास में सरमण और ब्राम्हण संस्कृति के संघर्ष को स्पष्ट किया है. आगे उन्होंने मानव मुक्ति का रास्ता के लिए कबीर, चोखामेला, रैदास, तुकाराम, नानक और पेरियार आदि के विचारों के बारे में विस्तृत चर्चा की.

अगले वक्ता डॉ. अरविन्द कुमार भी लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स थे जिन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि भारत में आधुनिकता की शुरुआत मध्यकाल से साधु संतों के द्वारा मानी जाती है जिन्होंने मानवता का मार्ग दिखाने का कार्य किया है. उनका मानना था कि ज्ञान के स्रोत पर चर्चा की जानी चाहिए भारतीय समाज में असमानता के स्रोत ब्राह्मणी साहित्य हैं जिनमें वेद और स्मृतियाँ प्रमुख हैं. डॉ अरविन्द कहते हैं  कि साधु रैदास भारत के पहले विचारक हैं जो जाति उन्मूलन की बात करते हैं. जैसे “जात जात में जात है, ज्यों केलन के पात, रैदास प्रसन्न न हो सके, जब तक जात न जात”. उन्होंने भारत में श्रम की असमानता पर प्रकाश डाला और श्रम के दो स्वरुप पवित्र और अपवित्र के बारे में बताया. बात यहाँ तक नहीं रुकी ब्राम्हणी साहित्य ने नदियों और पहाड़ों में उच्चता और निम्नता का क्रम की अवधारणा भी बनाई है जैसे कुछ नदियाँ पवित्र है और दूसरी उनके  मुकाबले में कम पवित्र है. इस धारणा का रैदास खंडन करते हैं जैसा उनका कथन है “मन चंगा तो कठोती में गंगा’ अतः मन पवित्र है तो सभी नदियों का जल भी पवित्र है. इसी प्रकार उतरप्रदेश से श्रीमती संगीता निगम ने कहा की संतों की वाणी के महत्त्व को समझने की आवश्यकता है. संत रैदास जी रोज एक जोड़ी जूता समाज के गरीब लोगों को दान करते थे उनकी शिष्या मीरा बाई और झाली बाई थी. भारत की साधु परम्परा समतावादी रही है जो मुख्यतः मौखिक है. संत रैदास जी के पदों को रागों में गाया जाता है और उनके गुणों की महिमा की जाती है. 

केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर से डॉ. वीरेंद्र सिंह मटसेनियाँ ने अपने वक्तव्य में कहा कि मान्यवर कांशीराम ने नयी पीढ़ी को हमारे बहुजन महापुरुषों से परिचय करवाया है. उन्होने ही बहुजन महापुरुषों की जयंती और मेले जैसे कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया है बहुजन साहित्य को समता की स्थापना हेतु लाया जाना चाहिये जो समाज में बंधुत्व और न्याय की पवित्र भावना का प्रचार कर सके. उन्होंने  आगे कहा कि नारी उत्त्थान में साधु रैदास की अहम् भूमिका रही है उन्होंने मीरा बाई को गुरु दीक्षा देने का कार्य किया था और उन्हें सती होने से बचाया था रैदास जी ने स्वाधीनता पर भी बहुत बल दिया था. आदित्य नारायण राजकीय इंटर कालेज चकिया- चंदोली से डॉ रामवचन यादव ने कहा कि भारत में साधुओं की वाणी के रूप में जो आध्यात्मिक विचारों की जन क्रांति हुई है जिसे लोकायत संस्कृति का प्रादुर्भाव माना गया है. उन्होंने आगे कहा की जैसा गुरु रैदास कहते हैं की “रैदास बाम्हन न पूजिए जो होवे गुनहीन, पूजिए चरन चंडाल के जो हो गुन प्रवीन” इस विचार के खिलाफ तुलसीदास लिखते है और विद्रोह भी करते हैं. अंतिम वक्ता डॉ. प्रदीप कुमार गौतम ने अपने उद्बोधन में कहा कि ब्राम्हणी साहित्य असमानता की विचारधारा से भरा है जिसे हमारे संतों ने नकार दिया है. हमारे संत शीलों, गुणों और सम्यक कर्म की बात कहते है. इस कार्यक्रम के तकनीकी संयोजक के रूप में डॉ. सुरेश प्रसाद अहिरवार, डॉ. जीतेंद्र डहेरिया और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय नई दिल्ली के पीचडी शोधार्थी भूपेंद्र अहिरवार और कृष्ण कुमार अहिरवार की अहम भूमिका रही है.

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